Friday, December 4, 2009

पाईथागोरस का सिद्धान्त पाईथाप्रमेय के बाद

समकोण त्रिभुज प्रमेय को पाइथागोरस प्रमेय के नाम से गणित के सभी विद्यार्थी जानते है| समकोण त्रिभुज के कर्ण का वर्ग उसके अधार और लम्ब के वर्गो के योग के बराबर होता है| शुल्व सूत्रो मे बिना निष्पादन के इसकी चर्चा की गयी है| आपस्तम्ब और बोधायन के आरम्भिक कार्यो मे यह दिखायी देता है| बोधायन 74 मे कहा है “एक आयत के विकर्ण (पर बनाये गये वर्ग) का क्षेत्रफल आयत के छोटे और बड़े भुजाओ (पर बने वर्गो) के क्षेत्रफल के योग के बराबर होता है|”बोधायन सूत्रो मे दिये गये समकोण त्रिभुज से सम्बन्धित कुछ अन्य प्रमेय निम्नलिखित है-

1.9. एक वर्ग का विकर्ण (वर्ग के) क्षेत्रफल के दोगुना क्षेत्रफल देता है|
1.12. एक आयत की दो भुजाओं (लम्बाई और चौड़ाई) के (वर्गो का) क्षेत्रफल का योग उसके विकर्ण के (वर्ग) के क्षेत्रफल के बराबर होता है|
1.13. ऐसा 3 और 4, 12 और 5, 15 और 8, 7 और 24, 12 और 35, 15 और 36 की भुजाओ वाले आयतो मे देखा गया है|

पाइथागोरियन त्रय एक समकोण त्रिभुज के पूर्णाक भुजाओ के समुच्चय को कहते है, जैसे ३,४,५ और ५,१२,१३ आदि, और इनका प्रयोग समकोण बनाने मे होता था| पाइथागोरियन त्रय आपस्तम्ब सुत्रो मे बहुत मिलते है|katyayana
katyayana
शतपथ ब्रह्मण और तैतरीय संहिता मे भी समकोण त्रिभुज प्रमेय का ज्ञान मिलता है| ए. सीडेनबर्ग का तर्क है कि सम्भवतः प्रचीन बेबीलोन को समकोण त्रिभुज प्रमेय का ज्ञान भारत से मिला अथवा प्रचीन बेबीलोन और भारत , दोनो को यह किसी तीसरे स्रोत से मिला| उनके अनुसार यह तीसरा स्रोत सुमेर सभ्यता (1700 BC) हो सकती है| कॉर्ल बी. बॉयर का कुछ ऐसा ही कहना है| उनके अनुसार पाइथागोरियन त्रय प्राचीन बेबीलोन के गणित से निष्पादित किये जा सकते है, अत: शुल्व सूत्रो पर मेसोपोटामिया की सभ्यता के प्रभाव की सम्भावना से इंकार नही किया जा सकता| आपस्तम्ब को ज्ञात था कि एक आयत के दोनो भुजाओ (लम्बाइ और चौड़ाई) के (वर्गो का) क्षेत्रफल का योग उसके विकर्ण के (वर्ग) के क्षेत्रफल के बराबर होता है, और इसी प्रकार के सूत्र मेसोपोटामिया से भी मिलते है|

[ref: Boyer (1991). "China and India". p. 207.]

यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है कि बोधायन तथा अन्य शुल्व सूत्रो का रचनाकाल 1000BC से 200BC माना जाता है और पाइथागोरस का जन्म 580BC के आसपास हुआ था| स्पष्ट है कि भारतीयो को यह प्रमेय पाइथागोरस से 500 वर्ष पहले ज्ञात था, परन्तु फिर भी इसका श्रेय भारतीयों को नहीं मिला|

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