Wednesday, December 5, 2018
श्रीमद्भागवतदशमस्कन्धानुसारं गोपीकृष्णसम्बन्धः
Sunday, December 21, 2014
अभिक्रमिताधिगमे सङ्गणकसहानुदेशनम्
Tuesday, June 22, 2010
अन्नानुसारिणी बुद्धिः
कस्मिंश्र्चित् राज्ये कश्र्चित् राजा शासनं करोति स्म। सः अनुचितप्रकारेण प्रजाभ्यः धनम् अर्जयति स्म। एवम् अर्जितेन धनेन सः वैभवोपेतं विलासमयं च जीवनं यापयति स्म। राज्ञःएतादृशम् आचरणं दृष्ट्वा राज्यस्य प्रजाः खिन्नाः आसन्। एकदा तत् राज्यं कश्र्चित् महात्मा आगतः। राजा महात्मानं यथोचितं सत्कृत्य प्रार्थितवान्-‘‘महात्मन्, कतिचन दिनानि राजभवने एव वासं कृत्वा भवान् अस्मान् अनुगृह्णातु’’ इति।
महात्मा राज्ञः अनुरोधपूर्णवचनम् अङ्गीकृत्य ‘कानिचन दिनानि राजभवने एव वासः करणीयः’ इति निश्र्चितवान्। महात्मने प्रतिदिनं विशिष्टं भोजनं दीयते स्म। सेवकै प्रतिदिनं तस्य सेवा शुश्रूषा च क्रियते स्म। महात्मा आनन्देन राजभवने स्थितवान।
एकदा महाराज्ञी स्नातुं स्नानगृहं गतवती आसीत्। स्नानगृहात् आगमनसमये सा स्वस्य मुक्ताहारं तत्रैव विस्मृत्य आगतवती। किञ्चित् कालानन्तरं महात्मा अपि स्नातुं स्नानगृहं गतवान्। सः स्नानगृहे मुक्तहारं दृष्टवान्। तं दृष्ट्वा महात्मा चिन्तितवान् ’एतं मुक्ताहारं सम्प्राप्य अहम् आजीवनं सुखेन जीवितुं शक्नोमि। किमर्थं मया प्रतिदिनं भिक्षाटनं करणीयम्?’ इति। एवं विचिन्त्य सः तं मुक्ताहारं स्वीकृत्य राजभवनात् निर्गतवान्।
ततः निर्गतः सः वनाभिमुखः अभवत्। आदिनं चलित्वा रात्रौ वने एकत्र सुरक्षिते स्थले सः विश्रामं कृतवान्। प्रातः उत्थाय प्रातर्विधिं समाप्य सः यदा उपविष्टवान् तदा पूर्वदिने स्वेन कृतस्य कार्यस्य विषये तस्य मनसि चिन्तनम् आरब्धम्। सहसा तस्य विचारः परिवर्तितः जातः। यथाशीघ्रं ततः सं मुक्ताहारं प्रत्यर्पयितुं निश्र्चितवान्। अतः सः राजभवनं गतवान्। तत्र राज्ञः पुरतः स्थित्वा स्वस्य अपराधम् अङ्गीकृत्य राज्ञे मुक्ताहारं समर्पितवान्। ‘मह्यं । यथोचितं दण्डं ददातु कृपया’इति महाराजं प्रार्थितवान् च।
महात्मनः इदं परिवर्तनं दृष्ट्वा राज्ञः आश्र्चर्यम् अभवत्। सः स्यमेव पृष्टवान् -‘‘भोः महात्मन्, प्रथमं तु भवान् मुक्ताहारं चोरयित्वा इतः निर्गतवान् आसीत्। पुनः हारं प्रत्यर्पयितुं दण्डं प्राप्तुं च किमर्थम् अत्र आगतवान?’’इति।
‘‘ सर्वम् अन्नस्य प्रभावः। मानवाः यादृशं अन्नं खादन्ति तादृशी एव भवति बुद्धिः अपि। अहं कतिचन दिनेभ्यः अनैतिकप्रकारेण अर्जितस्य भवतः अन्नस्य सेवनं कुर्वन् आसम्। तादृशस्य अनैतिकस्य अन्नस्य खादनतः मम आचारे विचारे च अपि असमीचीनः प्रभावः उत्पन्नः आसीत्। अतः एव अहं महाराज्ञयाः मुक्तहारं चोरितवान्। इतः निर्गमनानन्तरम् अत्रत्यम् अन्नम् उदरात् यदा निर्गतं तदा मम पूर्वतनः विचारः पुनः स्फुरितः। स्वच्छः विचारः यदा स्फुरितः तदा अहम् एतं मुक्ताहारं भवते समर्पयितुं, कृतस्य अपराधस्य निमित्तं दण्डं स्वीकर्तुं च अत्र आगतवान्’’ इति सविनयं निवेदितवान् महात्मा।
महात्मनः इदं वचनं श्रुत्वा राजा महात्मानं सादरं विमोचितवान्। स्वयमपि ततः आरभ्य अनैतिकमार्गेण धनार्जनं परित्यक्तवान्। दीर्घकालं यावत् च तत् राज्यम् उत्तमप्रकारेण परिपालितवान् च।
Saturday, December 5, 2009
पाणिनि : व्याकरण शास्त्र के श्रेष्ठ रचनाकार
“मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके । इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि 250,000 शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है । …. अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके ।”
- प्रसिद्ध जर्मन भारतविद मैक्स मूलर (1823 – 1900), अपनी पुस्तक साइंस आफ थाट में|
केवल मैक्समूलर ही नही, बल्कि विश्व के अनेक विद्वानो ने धीरे धीरे यह मान लिया है कि संस्कृत का व्याकरण संसार की सभी भाषाओ के व्याकरण से श्रेष्ठ और त्रुटिहीन है| विश्व के इस सर्वोत्तम भाषा के महान व्याकरण की रचना पाणिनि ने की थी तथा ऐसी मान्यता है कि उन्होने भगवान शिव के डमरु से निकली ध्वनियो के आधार पर इसका निर्माण किया था| अब यह कहाँ तक सत्य है, यह तो नही मालूम, परन्तु केवल 14 मुख्यसूत्रो के आधार पर संसार के सर्वश्रेष्ठ व्याकरण की रचना करना एक अदभुत कार्य है| पाणिनि ने ध्वनि, उच्चारण, और शब्दो के निर्माण का विस्तृत और वैज्ञानिक सिद्धान्त दिया| संस्कृत भारत की प्राचीन साहित्यिक भाषा है और पाणिनि इसके संस्थापक माने जाते है| ध्यान देने योग्य यह बात है कि “संस्कृत” शब्द का अर्थ होता है- “पूर्ण” अथवा “त्रुटिहीन”, और इसे देवभाषा भी मानी जाती है|
30 अगस्त 2004, भारतीय डाक विभाग ने पाणिनि के सम्मान मे 5 रूपये का एक डाक टिकट किया था|
पाणिनि का समयकाल अनिश्चित तथा विवादित है । कोई उन्हें 7वीं शती ई. पू., कोई 5वीं शती या चौथी शती ई. पू. का कहते हैं। इतना तय है कि छठी सदी ईसा पूर्व के बाद और चौथी सदी ईसापूर्व से पहले की अवधि में इनका अस्तित्व रहा होगा । इनका जीवनकाल 520 – 460 ईसा पूर्व माना जाता है ।
पाणिनि के जीवनकाल को मापने के लिए यवनानी शब्द के उद्धरण का सहारा लिया जाता है । इसका अर्थ यूनान की स्त्री या यूनान की लिपि से लगाया जाता है । गांधार में यवनो (Greeks) के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी सिकंदर के आक्रमण के पहले नहीं थी । सिकंदर भारत में ईसा पूर्व 330 के आसपास आया था । पर ऐसा हो सकता है कि पाणिनि को फारसी यौन के जरिये यवनों की जानकारी होगी और पाणिनि दारा प्रथम (शासनकाल – 421 – 485 ईसा पूर्व) के काल में भी हो सकते हैं । प्लूटार्क के अनुसार सिकंदर जब भारत आया था तो यहां पहले से कुछ यूनानी बस्तियां थीं ।
इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब है। जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था। उसे अब लहर कहते हैं। अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे गए हैं। और अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होंने इस नाम का उल्लेख किया है। चीनी यात्री युवान्च्वाङ् (Xuanxang), (7वीं शती) उत्तर-पश्चिम से आते समय शालातुर गाँव में गए थे, जहाँ पर उन्होने पाणिनि की मूर्ति स्थापित देखी| पंचतंत्र की एक कथा के अनुसार, एक शेर इनकी मृत्यु का कारण बना|
पाणिनि का समय वैदिक काल के अन्त मे था, ऐसा उनके द्वारा दिये गये व्याकरण को देख कर कहा जा सकता है| वैदिक ग्रन्थो मे छन्दो के रूप के लिये उन्होने कुछ विशेष नियम दिये थे, जो कि उस समय के सामान्य बोलचाल के भाषा मे प्रयुक्त नही होते थे| इस प्रकार हम कह सकते है कि वैदिक संस्कृत पहले से ही विद्यमान थी, परन्तु वह लोक भाषा नही थी| पाणिनि के गुरु का नाम उपवर्ष और माता का नाम दाक्षी था। पाणिनि जब बड़े हुए तो उन्होंने व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। पाणिनि से पहले शब्दविद्या के अनेक आचार्य हो चुके थे। उनके ग्रंथों को पढ़कर और उनके परस्पर भेदों को देखकर पाणिनि के मन में वह विचार आया कि उन्हें व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित करना चाहिए। पहले तो पाणिनि से पूर्व वैदिक संहिताओं, शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक्, उपनिषद् आदि का जो विस्तार हो चुका था उस वाङ्मय से उन्होंने अपने लिये शब्दसामग्री ली जिसका उन्होंने अष्टाध्यायी में उपयोग किया है। दूसरे निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया। इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है, जैसा शाकटायन, शाकल्य, भारद्वाज, गाग्र्य, सेनक, आपिशलि, गालब और स्फोटायन आदि आचार्यों के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है।
पाणिनि ने सहस्रों शब्दों की व्युत्पत्ति बताई जो अष्टाध्यागी के चौथे पाँचवें अध्यायों में है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, सैनिक, व्यापारी किसान, रँगरेज, बढ़ई, रसोइए, मोची, ग्वाले, चरवाहे, गड़रिये, बुनकर, कुम्हार आदि सैकड़ों पेशेवर लोगों से मिलजुलकर पाणिनि ने उनके विशेष पेशे के शब्दों का संग्रह किया।
पाणिनि ने यह बताया कि किस शब्द में कौन सा प्रत्यय लगता है। वर्णमाला के स्वर और व्यंजन रूप जो अक्षर है उन्हीं से प्रत्यय बनाए गए। जैसे- वर्षा से वार्षिक, यहाँ मूल शब्द वर्षा है उससे इक् प्रत्यय जुड़ गया और वार्षिक अर्थात् वर्षा संबंधी यह शब्द बन गया।
अष्टाध्यायी में तद्वितों का प्रकरण रोचक है। कहीं तो पाणिनि की सूक्ष्म छानबीन पर आश्चर्य होता हैं, जैसे व्यास नदी के उत्तरी किनारे की बाँगर भूमि में जो पक्के बारामासी कुएँ बनाए जाते थे उनके नामों का उच्चारण किसी दूसरे स्वर में किया जाता था और उसी के दक्खिनी किनारे पर खादर भूमि में हर साल जो कच्चे कुएँ खोद लिए जाते थे उनके नामों का स्वर कुछ भिन्न था। यह बात पाणिनि ने “उदक् च बिपाशा” सूत्र में कही है। गायों और बैलों की तो जीवनकथा ही पाणिनि ने सूत्रों में भर दी है।
आर्थिक जीवन का अध्ययन करते हुए पाणिनि ने उन सिक्कों को भी जाँचा जो बाजारों में चलते थे। जैसे “शतमान”, “कार्षापण”, “सुवर्ण”, “अंध”, “पाद”, “माशक” “त्रिंशत्क” (तीस मासे या साठ रत्ती तौल का सिक्का), “विंशतिक” (बीस मासे की तोल का सिक्का)। कुछ लोग अबला बदली से भी माल बेचते थे। उसे “निमान” कहा जाता था।
पाणिनि के काल में शिक्षा और वाङ्मय का बहुत विस्तार था। संस्कृत भाषा का उन्होंने बहुत ही गहरा अध्ययन किया था। वैदिक और लौकिक दोनों भाषाओं से वे पूर्णतया परिचित थे। उन्हीं की सामग्री से पाणिनि ने अपने व्याकरण की रचना की पर उसमें प्रधानता लौकिक संस्कृत की ही रखी। बोलचाल की लौकिक संस्कृत को उन्होंने भाषा कहा है। उन्होंने न केवल ग्रंथरचना को किंतु अध्यापन कार्य भी किया। (व्याकरण के उदाहरणों में उनके विषय का नाम कोत्स कहा है)। पाणिनि का शिक्षा विषयक संबंध, संभव है, तक्षशिला के विश्वविद्यालय से रहा हो। कहा जाता है, जब वे अपनी सामग्री का संग्रह कर चुके तो उन्होंने कुछ समय तक एकांतवास किया और अष्टाध्यायी की रचना की। ऐसा माना जाता है कि पाणिनि ने लिखने के लिए किसी न किसी माध्यम का प्रयोग किया होगा क्योंकि उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द अति क्लिष्ट थे तथा बिना लिखे उनका विश्लेषण संभव नहीं लगता है । कई लोग कहते है कि उन्होंने अपने शिष्यों की स्मरण शक्ति का प्रयोग अपनी लेखन पुस्तिका के रूप में किया था । भारत में लिपि का पुन: प्रयोग (सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद) ६ठी सदी ईसा पूर्व में हुआ और ब्राह्मी लिपि का प्रथम प्रयोग दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हुआ जो उत्तर पश्चिम भारत के गांधार से दूर था। गांधार में ६ठी सदी ईसा पूर्व में फारसी शासन था और ऐसा संभव है कि उन्होने आर्माइक वर्णों का प्रयोग किया होगा । पतंजलि ने लिखा है कि पाणिनि की अष्टाध्यायी का संबंध किसी एक वेद से नहीं बल्कि सभी वेदों की परिषदों से था (सर्व वेद परिषद)। पाणिनि के ग्रंथों की सर्वसम्मत प्रतिष्ठा का यह भी कारण हुआ। पाणिनि को किसी मतविशेष में पक्षपात न था। वे बुद्ध की मज्झिम पटिपदा या मध्यमार्ग के अनुयायी थे। शब्द का अर्थ एक व्यक्ति है या जाति, इस विषय में उन्होंने दोनों पक्षों को माना है। गऊ शब्द एक गाय का भी वाचक है और गऊ जाति का भी। वाजप्यायन और व्याडि नामक दो आचार्यों में भिन्न मतों का आग्रह या, पर पाणिनि ने सरलता से दोनों को स्वीकार कर लिया। पाणिनि से पूर्व एक प्रसिद्ध व्याकरण इंद्र का था। उसमें शब्दों का प्रातिकंठिक या प्रातिपदिक विचार किया गया था। उसी की परंपरा पाणिनि से पूर्व भारद्वाज आचार्य के व्याकरण में ली गई थी। पाणिनि ने उसपर विचार किया। बहुत सी पारिभाषिक संज्ञाएँ उन्होंने उससे ले लीं, जैसे सर्वनाम, अव्यय आदि और बहुत सी नई बनाई, जैसे टि, घु, भ आदि।
पाणिनि को मांगलिक आचार्य कहा गया है। उनके हृदय की उदार वृत्ति मंगलात्मक कर्म और फल की इच्छुक थी। इसकी साक्षी यह है कि उन्होंने अपने शब्दानुशासन का आरंभ “वृद्ध” शब्द से किया। कुछ विद्वान् कहते हैं कि पाणिनि के ग्रंथ में न केवल आदिमंगल बल्कि मध्यमंगल और अंतमंगल भी है। उनका अंतिम सूत्र अ आ है। ह्रस्वकार वर्णसमन्वय का मूल है। पाणिनि को सुहृद्भूत आचार्य अर्थात् सबके मित्र एवं प्रमाणभूत आचार्य भी कहा है।
पंतजलि का कहना है कि पाणिनि ने जो सूत्र एक बार लिखा उसे काटा नहीं। व्याकरण में उनके प्रत्येक अक्षर का प्रमाण माना जाता है। शिष्य, गुरु, लोक और वेद धातुलि शब्द और देशी शब्द जिस ओर आचार्य ने दृष्टि डाली उसे ही रस से सींच दिया। आज भी पाणिनि “शब्द:लोके प्रकाशते”, अर्थात् उनका नाम सर्वत्र प्रकाशित है। यदि महर्षि पाणिनि न होते तो दुनिया की किसी भी भाषा कोई बड़ा लेखक नहीं हो पाता। महर्षि पाणिनि ने ही भाषा की शुद्घता की जिस परंपरा को स्थापित किया, उसीका अनुरण आज दुनिया भर की भाषाओं में हो रहा है। संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है और भाषा विज्ञान की उत्पत्ति भी संस्कृत से ही हुई है।
कृतियां
पाणिनि का संस्कृत व्याकरण चार भागों में है -
अष्टाध्यायी – शब्द विश्लेषण
धातुपाठ – धातुमूल (क्रिया के मूल रूप)
गणपाठ